बिश्नोई समाज में होली का महत्व और परंपराएँ
बिश्नोई समाज प्रकृति और जीवों की रक्षा के लिए प्रसिद्ध है, इसलिए उनकी होली की परंपराएँ भी पर्यावरण और अहिंसा पर आधारित होती हैं। वे आमतौर पर रंगों की होली खेलने के बजाय होलिका दहन को प्रतीकात्मक रूप में मनाते हैं।
1. होलिका दहन और उसकी विशेषता
बिश्नोई समाज होलिका दहन को बहुत सीमित रूप में मनाता है।
वे पेड़ों की कटाई और लकड़ी जलाने से बचते हैं, क्योंकि वे पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देते हैं।
बिश्नोई लोग प्राचीन काल से पेड़-पौधों और जीवों की रक्षा के लिए समर्पित रहे हैं, इसलिए वे जंगलों को नुकसान पहुँचाने वाली गतिविधियों में शामिल नहीं होते।
कुछ स्थानों पर बिश्नोई समाज गोबर के उपलों से होलिका दहन करते हैं, जिससे पर्यावरण को कम नुकसान हो।
2. जीवों और प्रकृति की रक्षा
बिश्नोई समाज रंगों से परहेज करता है, खासकर रासायनिक रंगों से, क्योंकि इससे पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों को नुकसान हो सकता है।
वे इस अवसर पर पशु-पक्षियों को दाना और पानी डालते हैं तथा उनकी सेवा करते हैं।
कई जगहों पर बिश्नोई समाज के लोग होली के दिन पेड़ लगाकर पर्यावरण बचाने का संदेश देते हैं।
3. धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रम
बिश्नोई समाज के लोग होली पर भजन-कीर्तन और सत्संग का आयोजन करते हैं।
वे अपने गुरु जंभेश्वर भगवान की शिक्षाओं का पालन करते हुए शांति और प्रेम का संदेश फैलाते हैं।
कुछ स्थानों पर सामूहिक भोज और सेवा कार्य का आयोजन भी किया जाता है।
4. बिश्नोई समाज की विशेष पहचान
बिश्नोई समाज ने हमेशा अहिंसा, प्रकृति और जीवों की रक्षा को प्राथमिकता दी है। उनकी होली की परंपराएँ भी इन्हीं सिद्धांतों पर आधारित होती हैं। वे मौज-मस्ती के बजाय आध्यात्मिक और पर्यावरण-संरक्षण से जुड़ी गतिविधियों पर ध्यान देते हैं।
निष्कर्ष:
बिश्नोई समाज की होली बाकी समाजों से थोड़ी अलग होती है। वे होलिका दहन को न्यूनतम रखते हैं, रंगों से बचते हैं, जीवों और पर्यावरण की रक्षा करते हैं, और धार्मिक-सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। उनका यह तरीका हमें प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता और अहिंसा का संदेश देता है।
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