Laxman Bishnoi हर बार नई जमीन तलाशती लम्पी भारत में टिक न पाए

               लक्ष्मण बिश्नोई शोधार्थी और लेखक

राजस्थान बिश्नोई समाचार नागौर बात साल 1929 की है। आज का ज़ाम्बिया तब उत्तरी रोडेशिया कहा जाता था। गर्मियों के दिनों में यहां मवेशियों में एक नई बीमारी आई। इस में मरीज मवेशियों के पूरे शरीर पर उभरी हुई छोटी-छोटी घुण्डियां दिखने लगती थीं। जो हफ्ते-दस दिन तक बनी रहती थीं। पहले-पहल डॉक्टरों को लगा कि यह कीड़ों-मकोड़ों के काटने से चमड़ी में आई सूजन है। वहां राज कर रहे अंग्रेज तब चमड़ी के रोगों के लिए ‘डुबकी’ को रामबाण माना करते थे।

डुबकी यानी संखिए जहर (आर्सेनिक) घुले पानी में गायों को गोता लगवाना। इस के लिए गहरे नाले खुदवा कर आर्सेनिक के घोल से भरे जाते। फिर पशुओं को इनमें डुबकी लगवाई जाती, जिससे शरीर पर चिपके कीड़े-मकोड़े, जूं, चीचड़ आदि हट जाते थे। लेकिन गांठों वाली गायों को डुबकी लगवाने पर रोग मिटा नहीं, उलटे ज्यादा संखिए से चमड़ी और उधड़ गई। अंग्रेज बड़े हैरान हुए। लेकिन एक तो थोड़े दिनों में बीमारी शांत हो गई थी, दूसरे, वहाँं खुरपके का जोर ज्यादा था, इस बीमारी के मामले छिटपुट थे, इसलिए घुण्डियों की बात आई-गई हो गई।

15 साल बाद 1944 में बीमारी ने पहली बार भयानक रूप धारण किया। पहली जगह से 15 सौ किलोमीटर दूर, दक्षिण अफ्रीका में। यहां दुधारू गायों के पूरे के पूरे झुंड घुण्डियों से भर गए। अफ्रीकन किसानों ने इस बीमारी को नाम दिया - क्नोप-वेल-सिएक्ते। क्नोप यानी घुण्डी, वेल यानी चमड़ी और सिएक्ते यानी बीमारी।

वह बीमारी जिसमें चमड़ी पर घुण्डियां बन जाती हैं। इसी को अंग्रेज़ी में लम्पी स्किन डिज़ीज कहा गया। तब दक्षिण अफ्रीका में कुल अस्सी लाख गायों को घुण्डियों वाली बीमारी हुई थी। इनमें से डेढ़ लाख गाएं खेत रहीं। घुण्डियों का तांडव तब तक चलता रहा जब तक कि वहाँं के वैज्ञानिकों ने इसका वायरस खोज कर वैक्सीन न बना ली। तब से यह बीमारी हर बार नई ज़मीन, नए जानवर तलाशती रहती है।

क्वारेंटीन की हजार कोशिशों के बावजूद इसने नब्बे के दशक तक अफ्रीका पार कर लिया था। जुलाई 2019 में यह चटगांव, बांग्लादेश में फूटी। बीस दिन बाद यह हमारी सरजमीं पर थी। सरकारी कागजों में 12 अगस्त 2019 को ओडिशा में पहला मामला दर्ज किया गया। अब तीन सालों में लम्पी पूरा भारत नाप चुकी है।

इस साल चौमासे में अच्छा मेह बरसा। लोगों ने कहा गायों के भाग का बरसा है। पर बरसात के बाद गायों पर बिजली पड़ गई। साफ नीले आसमान से। अ बोल्ट फ्रॉम द ब्ल्यू। लोग नहीं जानते थे कि लम्पी आने वाली है। जो जानते थे, वे अनजान बने बैठे रहे। फिर हुआ यह कि गोचर- गौशालाओं में गिद्धों की गोठ हुई।

दस कोस चलो तो सड़क किनारे पचास गायें ढेर मिलती थीं। जिनके कंधों पर यह रोकने की जिम्मेदारी थी, उन्होंने कंधे उचका दिए। इससे हम लम्पी से पहली लड़ाई बुरी तरह से हारे हैं। तय है कि लय का मौसम मिलते ही लम्पी फिर लौटेगी।

मां-जाए के बराबर गाय-जाए का सहारा मानने वालोंं पर यह बड़ा संकट है। लम्पी के पैर जमने से देश में डेयरी उद्योग के पैर उखड़ते देर नहीं लगेगी। पशुधन के मरने का नुकसान तो है ही, जीवित रहे पशुओं में दूध सूख जाने, बांझ होने का भी खतरा है। अफ्रीकी देश यह सब झेल चुके हैं। समय के साथ वे इस पर लगाम लगाए रखने में भी सफल हुए हैं। शायद अब हमें उनसे चीतों के साथ गाएं पोसने की भी सीख ले लेनी चाहिए।

   लक्ष्मण बिश्नोई शोधार्थी 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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