यहां वन्य जीवो को अपना दूध पिलाती हैं महिलाएं, पेड़ों के लिए कटे थे 363 लोग

जयपुर. बिश्नोई समाचार नेटवर्क सुरेश ढाका राजस्थान की अलग संस्कृति उसे देश के दूसरे इलाकों से अलग करती है। यहां के एक समाज में ऐसी परंपरा है, जो शायद ही दुनिया में कहीं और देखने को मिले। जानवर और प्रकृति के प्रति इंसानी लगाव दुनिया के लिए मिसाल है। बता दें कि यहां एक ट्राइब की महिलाएं अपने बच्चों की तरह जानवरों के बच्चों को दूध पिलाती हैं। वे बिल्कुल मां की तरह ही उन्हें पालती हैं। बिश्नोई समुदाय में जानवरों को बच्चे की तरह करते हैं प्यार, और क्या खासियत है इस समुदाय की...
 
- कहा जाता है कि राजस्थान में करीब 500 सालों से बिश्नोई समाज के लोग जानवरों को अपने बच्चों की तरह पालते आए हैं।
- बिश्नोई समाज की महिलाएं न सिर्फ जानवरों को पालती हैं, बल्कि अपने बच्चे की तरह उनका देखभाल करती हैं।
- न सिर्फ महिलाएं बल्कि इस समाज के पुरुष भी लावारिस और अनाथ हो चुके हिरण के बच्चों को अपने घरों में परिवार की तरह पालते हैं। 
- इस समाज की महिलाएं खुद को हिरण के इन बच्चों की मां की कहती हैं।

क्या है बिश्नोई समाज
- बिश्नोई समाज को ये नाम भगवान विष्णु से मिला। बिश्नोई समाज के लोग पर्यावरण की पूजा करते हैं।
- इस समाज के लोग ज्यादा तर जंगल और थार के रेगिस्तान के पास रहते हैं। जिससे यहां के बच्चे जानवरों के बच्चों के साथ खेलते हुए बड़े होते हैं।
- ये लोग हिंदू गुरू श्री जम्भेश्वर भगवान को मानते हैं। वे बीकानेर से थे। इस समाज के लोग उनके बताए 29 नियमों का कड़ाई से पालन करते हैं।
कटने से बचाने के लिए पेड़ों से चिपक गए थे लोग, 363 लोगों की गई थी जान
- जोधपुर से सटे खेजड़ली गांव में वर्ष 1736 में खेजड़ी की रक्षा के लिए बिश्नोई समाज के 363 लोगों ने अपनी जान दे दी थी।
- उस वक्त खेजड़ली व आसपास के गांव पेड़ों की हरियाली से भरे थे। दरबार के लोग खेजड़ली में खेजड़ी के पेड़ काटने पहुंचे।
- ग्रामीणों काे पता चला तो उन्होंने इसका विरोध किया। उन्होंने लोगों से आग्रह किया कि पेड़ नहीं काटें, लेकिन वे नहीं माने।
- तभी खेजड़ली की अमृतादेवी बिश्नोई ने गुरु जंभेश्वर महाराज की सौगंध दिलाई और पेड़ से चिपक गईं।
- इस पर बाकी लोग भी पेड़ों से चिपक गए। फिर संघर्ष में एक के बाद एक 363 लोग मारे गए।
- बिश्नोई समाज ने इन्हें शहीद का दर्जा दिया और इनकी याद में हर साल खेजड़ली में मेला भी लगता है।
- अमृतादेवी के नाम केंद्र व कई राज्य सरकारें पुरस्कार देती हैं।
भाई-बहन की तरह रहते हैं बच्चे   
- यहां रहने वाले 21 साल की रोशनी बिश्नोई कहती हैं कि 'मैं हिरण के बच्चों के साथ ही बड़ी हुई हूं।'
- वे रोशनी के भाई-बहन जैसे ही हैं। ये उनकी ड्यूटी है कि उन्हें (हिरणों) को किसी तरह की परेशानी ना हो।
- रोशनी बताती हैं कि 'हम एक दूसरे से बात करते हैं। वो हमारी भाषा अच्छी तरह से समझते हैं।'

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