बिश्नोई धर्म अनुकूल दैनिक जीवनचया

डाॅ. राजाराम, सहायक प्रोफेसर
मानव जन्म लेकर प्राणी को अत्यन्त सावधान रहने
की आवश्यकता है। अनेक जन्मों तक भटकने के बाद
अन्त में यह मानव जीवन प्राप्त होता है। मानव जीवन में
प्राणी चाहे तो सदा-सर्वदा के लिए अपना कल्याण कर
सकता है, परन्तु इसके लिए हमें अपने धर्म शास्त्रोक्त
जीवनचर्या का पालन करना पड़ेगा। हमारे धर्मशास्त्र
परमात्मा की आज्ञा है तथा प्राणीमात्र के कल्याण के
विधान है।
हमारे संतों ने विचारपूर्वक धर्मशास्त्र के आधार पर
जो दिशा निर्देश दिए हैं, वे आज भी और कल भी
अनुकरणीय हैं, जीवन को सार्थक बनाने में सक्षम है।
जांभाणी साहित्य में प्रातःकाल से रात्रि शयन करने
तक दैनिक कर्मों का वर्णन किया गया है। प्रातःकाल
जल्दी ही निद्रा का त्याग कर उठना चाहिए। उठने के
पश्चात् सर्वशक्तिमान प्रभु का नाम स्मरण करना
चाहिए। आयुर्वेदशास्त्र में बताया गया है कि ब्रह्म मुहूर्त में
उठने से वर्ण, कीर्ति, बु(ि, लक्ष्मी, स्वास्थ्य, आयु की
प्राप्ति होती है। शरीर कमल की तरह खिल उठता है।
वर्णं कीर्ति मतिं लक्ष्मीं स्वास्थ्यमायुश्च विन्दति।
बा्र ह्मे महु र्तू ेस´नागृि च्छयंवा पकजं ंयथाû;भ.ै सार. प.ृ 93द्ध
सेरों करो सनान कहकर दैनिक स्नान का अत्यधिक
महत्व बताया गया है। पोथो ग्रन्थ ज्ञान में अवतार वर्णन
खण्ड में इसका वर्णन करते हुए कहा गया है-
नख तेथ के न्हाय लो, धोक दीय सीर नायं। ;पृ. 204द्ध
तन धोने के साथ-साथ मनुष्य मन को भी साफ रखे।
गुर सह धरमै कहया संसारि, चेला की करतुति विचारि।
तयासजं ागे ेकरसीनान, पात न्हावौधर्मधीयानû ;वहीद्ध
अर्थात् करतूतों को छोड़ो, नहा-धोकर धर्म का
ध्यान करो हे शिष्यो।
शौच आदि कर्म और मुख मंजिन ;मुंह धोनाद्ध
स्वच्छ और निर्मल जल से करना शरीर के लिए
लाभदायक होता है।
जब लग पाणी न्यावो होय, तब लग दांतण कर संजोय।
अंग जल त कर असनान, तदि वंसदर धोक समानû
;पोथो ग्रन्थ ज्ञान, पृ. 203द्ध
शास्त्रों में कहा गया है कि व्यक्ति स्नान करने क बाद ही संध्यावंदन, मंत्र जप, भगवद् दर्शन और
चरणामृत ग्रहण करने का अधिकारी बनता है।
स्नानं प्रतिदिनं कुर्यान्मत्रपूतेन वारिणा।
प्रातःस्नानेन योग्यः स्यान्मत्ररतोत्रजपादिषुû
बिश्नोई परम्परा में नीले वस्त्र धारण करना निषेध
है। सनातन धर्मशास्त्रों में भी नीले वस्त्र धारण करना
निषेध किया गया है। आपस्तम्ब )षि ने कहा है-
स्नानं दानं जपो होमः स्वाध्यायः पितृतर्पणाम्।
पत्र्चयज्ञा वृक्षा तस्य नीलवस्त्रस्य धारणात्û
;आपस्तम्बधर्मसूत्रद्ध
अर्थात् जो नीले वस्त्र धारण करके स्नान् दान, जप
होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण, पंचमहायज्ञ आदि कर्म करता
है, उसके वे कर्म निष्फल हो जाते हैं।
सद्भाषण, सद्विचार, सद्भावना और न्यायनिष्ठा
का परित्याग कर बाह्याडम्बर से कोई भी धर्मात्मा नहीं
बन सकता। भगवत् चिन्तन में और कर्म करने में समय
का सदुपयोग करना चाहिए। भगवान को सर्वव्यापक
जानकर ईष्र्या, द्वेष, घृणा, शत्रुता और कुत्सित भावों का
त्याग कर सर्वथा नियम-निष्ठा में तत्पर रहना चाहिए।
शास्त्रों में दैनिक जीवनचर्या का प्रारम्भ मल त्याग,
दन्तधावन और स्नान से निर्दिष्ट किया गया है। यथा-
दासी हाजर खवास कंचन ले झारी।
सौच करो दंतधावन स्नान की तैयारीû
;मीरां बृहव्यदावली, पद 158द्ध
शौच निवृत्ति के समय साफ-सफाई का विशेष ध्यान
रखना चाहिए।
विण्य लोटे पोखाल न जाय, सुचे विणां मुख बोले नांहि।
दोन्यौ नीवत्य सांझ तंत, एक विसन को जाण मंतû
अर्थात् मनुष्य को शौचनिवृत्ति उपरान्त जल से
प्रक्षालन अवश्य करना चाहिए। मुंह धोए बिना तो बोलना
भी नहीं चाहिए।
शौच स्नानादि से निवृत्त होकर मनुष्य को संध्या
होम करना चाहिए, विष्णु का जप करना चाहिए। होम
पूजा करते समय मनुष्य अहंकार भाव से मुक्त रहना
चाहिए। ऐसा मनुष्य अपने साथ-साथ औरों को भी
भवसागर से पार उतार सकता है।
होम कर घी गुगल सार, पचीस नांव को पढ़ै विचार।
आपा मार दया आचरि, अवर जीव कुं लीय उबारिû
;वहीद्ध
घर की नारियों को घर में शु(ता और पवित्रता का
पूरा ध्यान रखना चाहिए।
 घर की नारी उठै परभाति, पाणी छाल्य लीय जल हाथ्य।
पाककरजदि दसंु दबार, तदिवसदं रकर तीयारû;वहीद्ध
घर में प्रयोग में लाने वाले जल को कपड़े से
छानकर सभी कामों में प्रयुक्त करना चाहिए।
कपड़ा चोल छाणैं नीर, छाल्य सीनान कर जल तीरि।
घरमांजलवरतैसोछाल्य,वल्यजीवाणीजायनीवाण्यû
;वहीद्ध
घर के सब लोगों को पवित्र आचरण करना
चाहिए। हरि का जाप करना चाहिए। भूल कर भी कोई
पाप कर्म नहीं करना चाहिए।
जाण्य बझु य को न कर पाप, करित सबी हरि का जाप।
प्रत्येक बिश्नोई को हर काम से पहले विष्णु भगवान
का स्मरण करना चाहिए, अमावस्या का व्रत रखना
चाहिए।
र्जाइे  काम कर ठहराय, पहली विसन को नावं सण्ु ााय।
हीरदै जीभ कर इलाप, मान वरत अमावस थापि। ;वहीद्ध
अमावस्या व्रत के दौरान आडम्बरों से बचते हुए घी,
गुगल, मिठाई और जो कोई भी अनाज सहजता से
उपलब्ध हो सके होम की ज्योति के दर्शन कर धोक
लगानी चाहिए। अमावस्या के व्रत में जांभोजी द्वारा
उच्चरित सबद और साखी का उच्चारण करना चाहिए।
प्रत्येक बिश्नोई को अपने पंथ के नियम का पालन करते
हुए दसवंद अर्थात् आय का दसवां हिस्सा समाज
कल्याणार्थ देने से बचना नहीं चाहिए अर्थात् दान करें।
घी गुगल होम मिष्ठान, सहजै मिलै आगै धान।
जोति देख धोक लीपटाय, गति जमाति लागै पाय।
सबद र साखी बोलै दीन, एक वरत अमावस कीन।
पूजा धरम कर पंथ मांहि, दसवंद को अंस राखै नांहिû
परमानन्द बणियाल ;सुरजन जी द्वारा रचित औतार कथा,
चैपाई 225-227द्ध
भारतीय संस्ड्डति और बिश्नोई पंथ परम्परा में भी
अतिथि सेवा और संत सेवा पर विशेष बल दिया गया है।
‘अतिथि देवो भवः’ कहकर अतिथि का मान-सम्मान
प्रत्येक गृहस्थ का परम कत्र्तव्य है। गृहस्थ चाहे कितना 
भी अर्थाभाव से पीडि़त हो, उसके घर में अतिथि सत्कार
के अनुकूल तीन चीजों की कमी नहीं होती है। लोक
कहावत भी है-
आ बैठ पी पाणी। तीन चीज मोल नहीं लाणीû
परमानन्द वणियाल ने पोथो ग्रन्थ ज्ञान संग्रह में कुछ इसी
प्रकार का भाव व्यक्त किया है-
अमोड़ा सांधा नै दीजै बैसणों पंखा पवन डुलाय।
संस्ड्डत में कहा गया है घर से निराश गया अतिथि पुण्य
राशि ले जाता है, पाप छोड़ जाता है।
हिरण्यगर्भबु(या तं मन्येताभ्यागतं गृही।
जांभाणी साहित्य में अतिथि सेवा की बड़ी महिमा बताई
गई है-
जदि तै घरि आव महमांणं, नातो कुटंब नहीं पछाण्य।
गरुु कीपी्र तिमीलैलीपटाय,चरणबदंकरिसीसचडा़ यû
;पोथो ग्रन्थ ज्ञान, पृ. 203द्ध
अतिथि चाहे अपरिचित हो, उसका हृदय से
आदर-सत्कार करना चाहिए, घर में जैसा भोजन उपलब्ध
हो अतिथि को स्नेहपूर्वक कराना चाहिए।
दूध दही जीसौ घर सार, भोजन भाव सुं कर तीयार।
पगचरणाेि दकलीयचडा़ य,अडस़ ठि तीरथफलठहरायû
;पोथो ग्रन्थ ज्ञान, औतार कथा, चै. 215द्ध
इसी प्रकार कोई साधु संन्यासी भी गृहस्थ के यहां
आता है तो उसको आदर-सत्कारपूर्वक भोजन करवाने से
सुफल मिलता है। जिस घर से साधु सुखी अनुभव कर
जाता है उस गृहस्थ को अड़सठ तीर्थों का फल प्राप्त होता
है। गुरु जांभोजी महाराज कहते हैं कि साधु संतों को
विश्राम, भोजन प्रदान करने और आज्ञा पालन करने वाले
को सदा सुख मिलेगा, ऐसा मेरा वचन है।
थाकै साध लीयो विसराम, इह की सेवा कीजै तामं।
जीम्य को फल संबल होय, साध सुखी रह धरि सोय।
मेहरी अग्य भंग न होय, कंत कौ कहयौ न मेट सोयû
;पोथो ग्रन्थ ज्ञानः सुरजन जी रचित औतार कथा, चै. 216-217द्ध
शराब, तम्बाकू, भांग, बीड़ी आदि नशीली वस्तुएं
भजन तथा सदाचार में सबसे बड़ी बाधाएं हैं। नशा नाश
का घर है। धर्म नियमों में कहा गया है-
अमल तमाखू भांग दूर ही त्यागे।
नानक जी ने कहा है कि यदि सच्चे नशे में डूबना है
तो भगवान के नाम के नशे में डूबो।
नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात।
और खुमारी सब उतर जात है ज्यों तारा प्रभातû
सभी प्रकार के भेदभावों को भूलकर नशों से दूर
रहने का उपदेश देते हुए संत साहबराम जी कहते हैं-
वरण छतीसूं एकै प्यालै, मदरा भांग लील सब टालै।
होको भांग तामाखू त्यांगै, चाय मांस सूं दूर ही भागैû
;जंभसार भाग-2, पृ. 76द्ध
मनुष्य को अच्छे लोगों की संगत में रहना चाहिए।
 भलियो होय सो भली बुध आवै। बुरियों बुरी कमावैû
जिन बातों को सुनने-कहने से काम, क्रोध, लोभ,
मोह उत्पन्न हो, उनसे बचना चाहिए।
चोरी निन्दा झूठा बराजियो वाद न करणो कोय।
दुर्जनों से दूर रहना चाहिए। इससे विकार पैदा ही
नहीं हो पाएंगे-
कुजीवन के निकट न गएऊ, आपहि आप दुखै रहेउ।
पापीजीवैहि दरू रहाव,ै रविनिकटजसउलूनआवûै ;वहीद्ध
अथर्ववेद में कहा गया है-
प्र पतेतः पापि लक्ष्मिः। ;अथर्ववेद 7/115/1द्ध
अर्थात् पाप की कमाई छोड़ दो। पसीने की कमाई
से ही मनुष्य सुखी बनता है।
हक बोलै हक ही में चालै, पाप करम सब पासै टालै।
साच ही लने ा साच ही दने ा, साचं ही जीमण साचं चवण्ै ााû
;जंभसार भाग-2, पृ. 76द्ध
मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी आवश्यकताएं
सीमित रखे आय से अधिक व्यय न करे। भारतीय आदर्श
जीवनचर्या में परिश्रम और अनुशासन से प्राप्त ईमानदारी
की कमाई पर जोर दिया गया है। रिश्वतखोरी,
लूट-खसूट और अनुचित तरीकों से पैसा पैदा न करे और
यह तभी संभव है जब मनुष्य अपनी आवश्यकताओं पर
काबू पाए।
अपमित्य धान्यं याज्जघसाहमिदम्। ;अथर्ववेद, 6/117/2द्ध
अपनी सात्विक कमाई से अधिक व्यय न करें।
शु( जीवनचर्या सात्विक आचारों और वेशभूषा धारण
करने से भगवान की प्राप्ति होती है। संत साहबरामजी
कहते हैं-
विश्नू-विश्नू नाम उचारै, जाणरू जीव जंत नहीं मारै।
दया धरम करह प्िर तपाला, रूख्ं ा राय के सदा रूखालाû
;जंभसार भाग-2, पृ. 16द्ध
इस प्रकार धर्मशास्त्रों में बताई गई विधि से दैनिक
कार्य करता हुआ जो व्यक्ति कत्र्तव्य निर्वहन में लगा रहता
है, वह सुखी, क्लेशविहीन जीवन जीने में सफल होता है।
वेदों और सभी सद्ग्रंथों की शिक्षाएं हैं- सदा सच बोलो,
धर्ममय आचरण अपनाओ, स्वाध्याय में आलस्य मत
करो।
सत्यं वद, धर्मं चर, स्वाध्यायान्ना प्रमदः।
माता-पिता, आचार्य, अतिथि आदि पूजनीय लोगों
की सेवा करो। श्र(ापूर्वक सुपात्र को दान दो। सफल
सुखी जीवन जीने के लिए इन कामों को सदा-सर्वदा के
लिए त्याग दो। जैसे- जुआ खेलना, गोवध करना, परस्त्री
गमन, मांस खाना, शराब, भांग, तम्बाकू आदि उत्तेजना
रहित हो शांत भाव से रहना, किसी प्राणी की हिंसा न
करना, होम आदि कर्म अपनी सामथ्र्य के अनुसार करना,
दूसरों के उपकार को याद रखना चाहिए।
इसके साथ ही स्वस्थ, सुखद, सफल, यशस्वी
जीवन जीने के लिए मनुष्य को माता-पिता का
आज्ञाकारी, माँ के प्रति श्र(ा भाव एक प्रेम भाव रखना,
स्त्री से शान्तिपूर्ण मधुर व्यवहार वाला, भाई-बहन से द्वेष
न रखने वाला एक दूसरे के प्रति आदरभाव रखने वाला
होना चाहिए। अथर्ववेद में कहा गया है-
अनुव्रत, पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुमती वाचं वदतु शान्तिव्याम्û
अथर्ववेद, 3/30/2द्ध
इस प्रकार दिनचर्या का पालन करने से जो
नियमब(ता, समय की पाबन्दी जीवन में आयेगी वह पूरे
जीवन को प्रभावित कर जीवन को संयमित बना महानता
की ओर अग्रसर करेगी। धर्मग्रन्थों में बताई गई
जीवनचर्या का पालन विकसित समाज और विकसित
मानव सभ्यता आधार स्तम्भ हो सकता है।
आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः।
अर्थात् आचारहीन व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर
सकते।
- डाॅ. राजाराम, सहायक प्रोफेसर
राजकीय महाविद्यालय, भूट्टू कलां
फतेहाबाद, मो.: 9896789100
साभार अमर ज्योति पत्रिका 

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