जगदीश चन्द्र वणियाल अमर ज्योति
संभराथल धोरा विष्णु अवतार जम्भेश्वर भगवान की
कर्मस्थली रही है। यहीं पर प्रभु ने अपने जीवन का अधिकांश
समय व्यतीत किया। बाल्यावस्था में ही गौचारण के समय
संभराथल धोरे पर आने लगे थे। यहां पर बालग्वालों को
लीला दिखाते थे। एक बार जब पाताल लोक में गये तो
माता-पिता तथा बालग्वाल सभी दुःखी हुए। परन्तु एक मास
के बाद यहीं संभराथल पर समाधिस्थ बैठे मिले। यह स्थान
उनकी विष्णुपुरी था।
माता-पिता के लोकगमन करने के पश्चात् यहीं
संभराथल पर अपना आसन जमा कर बैठ गये। जीवन का
बाकी भाग यहीं पर व्यतीत किया। नित्य प्रति यहां पर यज्ञ
करते व ज्ञान उपदेश देते थे। दीन दुःखियों के दुःख व
अज्ञानता मिटाते थे। 24 राजा इनके शिष्य थे जो प्रायः यहां
आते रहते थे। कितनी जनमानस की भीड़ यहां रहती थी, यह
मात्र कल्पना की जा सकती है। गुरु महाराज 51 वर्षों तक यहां
लीला करते रहे। बिश्नोई पंथ का संचालन गुरु महाराज ने
इसी स्थल पर किया। इसलिए यह बिश्नोइयों की जन्मस्थली
है। बिश्नोइयों के लिए इससे पावन व पवित्र स्थान और क्या
हो सकता है। ऐसे पवित्र व तपोस्थल को शत-शत नमन।
संभराथल धोरे पर दो संतों के आश्रम बने हुए हैं। एक
आश्रम जिसको स्वामी रामप्रकाश जी ने सबसे पहले बनवाया
था, जिसके वर्तमान महन्त स्वामी रामाड्डष्णा जी महाराज हैं।
दूसरा आश्रम परम् तपस्वी सि( सन्त स्वामी चंद्रप्रकाश जी
महाराज ने विक्रम सम्वत् 2020 में बनवाया था, जिसके महन्त
स्वामी छगनप्रकाश जी महाराज हैं। यहां पर संतों का निवास है
व जो भक्तगण यहां अपने श्र(ा सुमन अर्पित करने आते हैं,
उनके ठहरने व भोजन की अति उत्तम सुविधा है।
संभराथल पर जो मन्दिर बना हुआ है इसकी नींव
विक्रमी सम्वत् 2028 में स्वामी चन्द्रप्रकाश जी महाराज व
स्वामी रामप्रकाश जी महाराज ने रखी थी। इसका निर्माण विस.
2039 में आषाढ़ वदी अमावस्या को पूर्ण हुआ था। इस
मन्दिर का निर्माण श्री चन्द्रप्रकाश जी महाराज के अथक
प्रयासों से पूर्ण हुआ।
उन्होंने बिश्नोईजनों से चन्दा इकट्ठा करके इसका निर्माण
करवाया। आज से 44 वर्ष पूर्व इस मन्दिर का निर्माण आरम्भ
हुआ था। उस समय की स्थिति कैसी थी। हम इसकी कल्पना
ही कर सकते हैं। संभराथल पर पहुंचने के लिए कच्चा मार्ग,
धोरों का रेतीला मार्ग, सामान वहां कैसे पहुंचा। पानी व
बिजली थी नहीं। लोगों ने ऊँटगाडि़यों से व स्वयं अपने सिर
पर रखकर निर्माण सामग्री यहां तक पहुंचाई। बड़ी विषम
परिस्थिति थी परन्तु संतों व भक्तों के सामथ्र्य से निर्माण कार्य
पूर्ण हुआ।
वर्तमान मन्दिर से पहले संभराथल पर उत्तर की पौडि़यों
की तरफ एक छोटा सा मन्दिर बना हुआ था। इसको स्वामी
रामानन्द जी महाराज ने वि.सं. 1990 के आसपास बनवाया
था। वो यहीं पर रहते थे। बिश्नोई जनों के घरों से अन्न व घी
मांग कर लाते थे। जिससे यहां पर यज्ञ होता था और अपनी
उदर पूर्ति करते थे। उस समय यहां पर कोई सुविधा नहीं थी।
ना कोई आश्रम था, ना पीने का पानी था तथा ना बिजली थी।
यहां पर पानी व बिजली की व्यवस्था लगभग वि.सं. 2038 में
हुई थी। स्वामी रामानन्दजी महाराज के समय इस छोटे से
मन्दिर में पूजा व सेवा का काम थापन लोग किया करते थे।
यहां छोटा सा मन्दिर लगभग 50 वर्षों तक रहा।
वि.सं. 1593 में गुरु महाराज ने अपनी लीला समाप्त
करके अपने लोक को पधारे तबसे लेकर वि.सं. 1990 के
बीच का समय अज्ञात मालूम पड़ता है। लगभग 400 वर्षों
तक इस पवित्र स्थल का इतिहास नामालूम पड़ता है। इतना तो
सुनने में आता है कि भक्तजन अमावस्या को यहां पर आते थे।
लकड़ी इकट्ठी करके उन पर घी डालकर ज्योत प्रकट करके
जाते थे तथा दोनों मेलों पर लोग यहां दर्शनार्थ आते थे परन्तु
सुविधा के अभाव के कारण, यहां पर ठहरता कोई नहीं था।
वापिस मुकाम चले जाते थे।
महासभा ने स्वामी चन्द्रप्रकाश जी महाराज से निवेदन
किया कि मन्दिर पर दोनों मेलों पर आने वाले चढ़ावे पर सिर्फ
महासभा का अधिकार होना चाहिए। चन्द्रप्रकाश जी महाराज
त्यागमूर्ति व तपस्वी सन्त थे, उन्होंने सहर्ष यह स्वीकार कर
लिया। तब से लेकर आज पर्यन्त दोनों मेलों से आने वाला
चढ़ावा महासभा ले जाती है।
संभराथल धोरा विष्णु अवतार जम्भेश्वर भगवान की
कर्मस्थली रही है। यहीं पर प्रभु ने अपने जीवन का अधिकांश
समय व्यतीत किया। बाल्यावस्था में ही गौचारण के समय
संभराथल धोरे पर आने लगे थे। यहां पर बालग्वालों को
लीला दिखाते थे। एक बार जब पाताल लोक में गये तो
माता-पिता तथा बालग्वाल सभी दुःखी हुए। परन्तु एक मास
के बाद यहीं संभराथल पर समाधिस्थ बैठे मिले। यह स्थान
उनकी विष्णुपुरी था।
माता-पिता के लोकगमन करने के पश्चात् यहीं
संभराथल पर अपना आसन जमा कर बैठ गये। जीवन का
बाकी भाग यहीं पर व्यतीत किया। नित्य प्रति यहां पर यज्ञ
करते व ज्ञान उपदेश देते थे। दीन दुःखियों के दुःख व
अज्ञानता मिटाते थे। 24 राजा इनके शिष्य थे जो प्रायः यहां
आते रहते थे। कितनी जनमानस की भीड़ यहां रहती थी, यह
मात्र कल्पना की जा सकती है। गुरु महाराज 51 वर्षों तक यहां
लीला करते रहे। बिश्नोई पंथ का संचालन गुरु महाराज ने
इसी स्थल पर किया। इसलिए यह बिश्नोइयों की जन्मस्थली
है। बिश्नोइयों के लिए इससे पावन व पवित्र स्थान और क्या
हो सकता है। ऐसे पवित्र व तपोस्थल को शत-शत नमन।
संभराथल धोरे पर दो संतों के आश्रम बने हुए हैं। एक
आश्रम जिसको स्वामी रामप्रकाश जी ने सबसे पहले बनवाया
था, जिसके वर्तमान महन्त स्वामी रामाड्डष्णा जी महाराज हैं।
दूसरा आश्रम परम् तपस्वी सि( सन्त स्वामी चंद्रप्रकाश जी
महाराज ने विक्रम सम्वत् 2020 में बनवाया था, जिसके महन्त
स्वामी छगनप्रकाश जी महाराज हैं। यहां पर संतों का निवास है
व जो भक्तगण यहां अपने श्र(ा सुमन अर्पित करने आते हैं,
उनके ठहरने व भोजन की अति उत्तम सुविधा है।
संभराथल पर जो मन्दिर बना हुआ है इसकी नींव
विक्रमी सम्वत् 2028 में स्वामी चन्द्रप्रकाश जी महाराज व
स्वामी रामप्रकाश जी महाराज ने रखी थी। इसका निर्माण विस.
2039 में आषाढ़ वदी अमावस्या को पूर्ण हुआ था। इस
मन्दिर का निर्माण श्री चन्द्रप्रकाश जी महाराज के अथक
प्रयासों से पूर्ण हुआ।
उन्होंने बिश्नोईजनों से चन्दा इकट्ठा करके इसका निर्माण
करवाया। आज से 44 वर्ष पूर्व इस मन्दिर का निर्माण आरम्भ
हुआ था। उस समय की स्थिति कैसी थी। हम इसकी कल्पना
ही कर सकते हैं। संभराथल पर पहुंचने के लिए कच्चा मार्ग,
धोरों का रेतीला मार्ग, सामान वहां कैसे पहुंचा। पानी व
बिजली थी नहीं। लोगों ने ऊँटगाडि़यों से व स्वयं अपने सिर
पर रखकर निर्माण सामग्री यहां तक पहुंचाई। बड़ी विषम
परिस्थिति थी परन्तु संतों व भक्तों के सामथ्र्य से निर्माण कार्य
पूर्ण हुआ।
वर्तमान मन्दिर से पहले संभराथल पर उत्तर की पौडि़यों
की तरफ एक छोटा सा मन्दिर बना हुआ था। इसको स्वामी
रामानन्द जी महाराज ने वि.सं. 1990 के आसपास बनवाया
था। वो यहीं पर रहते थे। बिश्नोई जनों के घरों से अन्न व घी
मांग कर लाते थे। जिससे यहां पर यज्ञ होता था और अपनी
उदर पूर्ति करते थे। उस समय यहां पर कोई सुविधा नहीं थी।
ना कोई आश्रम था, ना पीने का पानी था तथा ना बिजली थी।
यहां पर पानी व बिजली की व्यवस्था लगभग वि.सं. 2038 में
हुई थी। स्वामी रामानन्दजी महाराज के समय इस छोटे से
मन्दिर में पूजा व सेवा का काम थापन लोग किया करते थे।
यहां छोटा सा मन्दिर लगभग 50 वर्षों तक रहा।
वि.सं. 1593 में गुरु महाराज ने अपनी लीला समाप्त
करके अपने लोक को पधारे तबसे लेकर वि.सं. 1990 के
बीच का समय अज्ञात मालूम पड़ता है। लगभग 400 वर्षों
तक इस पवित्र स्थल का इतिहास नामालूम पड़ता है। इतना तो
सुनने में आता है कि भक्तजन अमावस्या को यहां पर आते थे।
लकड़ी इकट्ठी करके उन पर घी डालकर ज्योत प्रकट करके
जाते थे तथा दोनों मेलों पर लोग यहां दर्शनार्थ आते थे परन्तु
सुविधा के अभाव के कारण, यहां पर ठहरता कोई नहीं था।
वापिस मुकाम चले जाते थे।
महासभा ने स्वामी चन्द्रप्रकाश जी महाराज से निवेदन
किया कि मन्दिर पर दोनों मेलों पर आने वाले चढ़ावे पर सिर्फ
महासभा का अधिकार होना चाहिए। चन्द्रप्रकाश जी महाराज
त्यागमूर्ति व तपस्वी सन्त थे, उन्होंने सहर्ष यह स्वीकार कर
लिया। तब से लेकर आज पर्यन्त दोनों मेलों से आने वाला
चढ़ावा महासभा ले जाती है।
हम अच्छी तरह जानते हैं कि पहले श्र(ालु सिर्फ मेलों के
ही अवसर पर आते थे, अमावस्या को तो नजदीक के
बिश्नोईजन आकर चले जाते थे। अभी पिछले कुछ वर्षों से ही
भक्तजन अमावस्या पर काफी संख्या में आने लगे हैं।
कुछ विशेष जानकारियांः-
1. मन्दिर का निर्माण संतों ने करवाया।
2. मन्दिर के चैक पर जो संगमरमर लगा हुआ है इसका
काम भी कैलाश जी सिगड़, निबड़ीयासर निवासी जो बिजली
विभाग में अधिकारी थे उन्होंने अपने निज खर्चे से पूर्ण
करवाया।
3. मन्दिर में जाने के लिए जो मुख्य पौडि़यां बनी हुई हैं यह
श्री जगदीश जी धारणियां ने अपने निज खर्चे से बनवाई।
मन्दिर की जो वर्तमान स्थिति है उस पर जरा विचार करें।
1द्ध मन्दिर के अन्दर दिवारों पर छत तक संगमरमर लगा है,
इसलिए पेंट की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती, केवल बाहर
से ही इसकी साफ-सफाई, रंग-रोगन व चमक-दमक रखना
महासभा की जिम्मेदारी है।
2द्ध चैक पर लोहे की ग्रिल लगी है और छोटी सी यज्ञशाला
बनी हुई है, यह कार्य महासभा का करवाया हुआ है।
वर्तमान स्थितिः
1. मन्दिर में पिछले 10 वर्षों से कोई पेंट व रंग-रोगन का
कार्य नहीं करवाया गया।
2. मन्दिर के चैक की ग्रिल का पेंट उतर चुका है और जंग
लगने से लाल-लाल दिखती है।
3. लोहे की ग्रिल के बीच में पूरे चैक पर 34 पिलर बनाए
गए हैं जिन पर संगमरमर लगना था जो आज तक नहीं लगा
है। सिर्फ सीमेंट का कच्चा प्लास्टर हुआ है जो जगह-जगह से
टूटा हुआ दिखता है।
4. इन पिलर पर बिजली की रोशनी के लिए निर्माण के
समय से ही लोहे की पाइप लगाई गई थी ताकि मंदिर दूर से
रोशन नजर आए। परन्तु इन पिलर पर लाइट नहीं लगी है।
5. मन्दिर का मुख्य प्रवेश द्वार जिस पर सीमेंट से निर्मित
‘श्री जम्भेश्वर भगवान’ का पेंट बिल्कुल उतर गया है और यह
बड़े गौर से देखने से ही नजर आता है।
6. इसके नीचे मुख्य द्वार पर पेंट से लिखा ‘भगवान श्री
जम्भेश्वर तपोस्थल समराथल धाम’ बहुत ही कम पढ़ने में
आता है।
7. मन्दिर का छज्जा जो चारों तरफ छत पर बाहर निकला
हुआ है उसकी हालत बहुत खस्ता है। वह सारा फटा पड़ा है।
इसमें लगा सरिया बाहर नजर आता है। इस वर्ष जुलाई माह में
वर्षा में उत्तर की तरफ खुलने वाले दरवाजे के उपर छज्जे का
प्लास्टर धड़ाम से गिरा। यह हमारे धर्म के उद्गम स्थल के
मन्दिर की हालत है। अन्य धर्मों के लोग अक्सर यहां आते
रहते हैं, वे क्या प्रभाव हमारे प्रति लेकर जाते हैं, जरा कल्पना
कीजिए।
8. मन्दिर की मुख्य पौडि़यों के पूर्व की तरफ पौडि़यां बनी
है जो कच्चे भाग में खुलती है जहां अमावस्या व मेलों के
समय यज्ञ होता है। इन पौडि़यों पर कोटा स्टोन लगा हुआ है।
गर्मी के मौसम में कोटा स्टोन इतना गर्म हो जाता है कि
भक्तजनों के पैर जलने लगते हैं और संतजन इन पर पानी
डालकर ठंडा करने का प्रयत्न करते हैं।
अब नई महासभा का पुनर्गठन हुआ है, मैं उनसे करब(
निवेदन करता हूं कि वो अपने पद ग्रहण के दिन ही इस मन्दिर
की स्थिति का अवलोकन करें और सर्वप्रथम इसकी भव्यता
व सुन्दरता पर ध्यान देवें और इसकी मरम्मत करवाकर
भगवान जम्भेश्वर को अपने श्र(ासुमन भेंट करें।
संभराथल पर दोनों आश्रमों के महंत अपने अथक
प्रयासों से, यहां पहुंचने वाले भक्तजनों के भोजन व ठहरने की
सुविधा की व्यवस्था करते हैं। इसकी पूर्ति के लिए संतजन
ग्रामों से भक्तजनों से सहयोग में अन्न इकट्ठा करके ले आते
हैं। भक्तजनों को दूध-दही आदि सुविधा के लिए आश्रम में
गायें रखी हुई हैं, इनके चारे की व्यवस्था संतजन स्वयं करते
हैं। ये संतजन निःस्वार्थ भाव से यहां पहुंचने वाले भक्तजनों
को सुविधा उपलब्ध करवाते हैं। समाज इन संतों का )णी है।
जितनी शु(ता, पवित्रता व सुव्यवस्था संभराथल धोरे के
आश्रमों में है ऐसी किसी अन्य धाम पर नहीं है। मैं इन संतों को
कोट-कोटी नमन करता हूं।
-जगदीश चन्द्र वणियाल
580, सैक्टर 19, सिरसा ;हरि.द्ध
मो.ः 9466332300
साभार अमर ज्योति पत्रिका
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