बिश्नोई पंथ की स्थापना

जाम्भोजी ने  अपने माता-पिता के स्वर्गवास के बाद गुरु जाम्भोजी ने पीपासर को छोड़ दिया था। वे स्थायी रूप से समराथल पर रहने लग गये। समराथल पर रहते हुए उन्हें अभी थोड़ा समय हुआ था। कि संवत् 1542 में इस क्षेत्र मे भयंकर अकाल पड़ गया। अकाल को सहन करना यहाँ के लोगों के लिये कोई नई बात नहीं थी। 
पर इस अकाल से घबराकर लोग अपने घरों को छोड़कर अपने पशुओं को साथ लेकर मालवे की ओर जाने लग गये। गाँव के गाँव खाली होने प्रारंभ हो गये। अकाल के इस संकट को देखकर गुरु जाम्भोजी को बड़ी चिंता हुई। उन्होंने लोगों को मालवे आदि स्थानों पर जाने से रोका और अपनी अलौकिक शक्ति से उनकी अन्न-धन से सहायता की लोगों ने समराथल एवं उसके आस-पास अपने डेरे लगा लिये। वहाँ रहते हुए लोगों को आवश्यकतानुसार अन्न-धन एवं चारा-पानी आदि प्राप्त हो जाता था। लोग ऊँटो पर लादकर अन्न ले जाते थे। फिर भी अन्न की कोई कमी नहीं पड़ी। इसके साथ साथ ही गुरु जाम्भोजी लोगों के आचरण को सुधारने हेतु उपदेश भी देते रहते थे।
इस तरह गुरु जाम्भोजी ने अकाल में इस क्षेत्र के लोगों की शारीरिक एवं मानसिक भूख को शान्त किया। इसी बीच अच्छी वर्षा हो गई और लोग अपने अपने घर जाने की तैयारी करने लग गये।
गुरु जाम्भोजी ने लोगों को आगामी समय के लिए अनाज,फसल के लिये बीज और खेती का सामान दिया । ऐसे ही उचित समय में गुरु जाम्भोजी ने जन कल्याण के उद्देश्य से बिश्नोई पंथ प्रारंभ करने का निश्चय किया। अपने निश्चय के अनुसार ही गुरु जाम्भोजी ने संभवत 1542 में कार्तिक वदि अष्टमी को समराथल धोरे पर कलश की स्थापना करके, लोगों को पाहल देकर बिश्नोई पंथ की विधिवत स्थापना की। गुरु जाम्भोजी ने पाहल मंत्र द्वारा कलश में भरे जल का पाहल बनाया और इसी पाहल को देकर लोगों को बिश्नोई पंथ की दीक्षित करना प्रारंभ किया। उन्होंने सबसे पहले अपने चाचा पूल्होजी को पाहल देकर पंथ में दीक्षित किया। बिश्नोई पंथ में दीक्षित होने से पूर्व पूल्होजी ने गुरु जाम्भोजी से स्वर्ग दिखाने की प्रार्थना की। उन्होंने कहा कि मैं यह चमत्कार देखने पर ही बिश्नोई पंथ में दीक्षित हो सकता हूँ। तब गुरु जाम्भोजी ने उन्हें सशरीर स्वर्ग के दर्शन करवाये। इस चमत्कार को देखकर पूल्होजी को गुरु जाम्भोजी के विष्णु होने का पूर्ण विश्वास हो गया था। इसी विश्वास के आधार पर वे सबसे पहले पंथ में दीक्षित हुए। पंथ में दीक्षित होने का यह काम अष्टमी से लेकर अमावस्या तक होता रहा । बाद में भी लोग बिश्नोई पंथ में सम्मिलित होते रहे हैं। वास्तव में गुरु जाम्भोजी ने बिश्नोई पंथ की स्थापना किसी जाति विशेष के लिए नही की थी। यह पंथ मानव मात्र के लिए है। इसलिए इसमें बिना किसी भेदभाव के सभी जातियों के लोग सम्मिलित होते रहे हैं। इसी कारण गुरु जाम्भोजी के समय में ही इसका क्षेत्र बहुत बड़ा हो गया था।
द्वारा :- गुरु जाम्भोजी और बिश्नोई पंथ से लिखा  :-रघुनाथ ऐचरा बिश्नोई

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