सफल सिपाही के संघर्ष की सच्ची दास्तां

अगर इरादे अटल हो और मन में कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो फिर हर राह आसान है। 'पथप्रदर्शक' में आज हम लेकर आये हैं बिश्नोई समाज के एक मेहनतकश बेटे के संघर्ष और सफलता की सच्ची कहानी। यह कहानी है भारतीय वायुसेना में कार्यरत डाँ. डुंगरराम बिश्नोई के जुनून और जज्बे की।

राजस्थान के जालोर जिले के एक छोटे से गाँव झोटड़ा में जन्मे डाँ. बिश्नोई की सफलता की कहानी किसी करिश्मे से कम नहीं हैं 5 जुलाई 1983 को एक साधारण बिश्नोई परिवार में जन्मे डुंगरराम का बचपन घोर अभावों में बीता। माता-पिता दिहाड़ी के मजदूर थे और घर में आधारभूत सुविधाओं का नितांत अभाव यहाँ तक की पीने का पानी भी खारा और वो भी कई किलोमीटर दूर से लाना पड़ता। यह बचपन में उन सभी सुविधाओं से महरूम रहे जो आम बच्चों को मिल जाया करती है। ऐसी परिस्थितियों में बच्चों के लिए स्कूल जाना नामुमकिन होता है मगर डुंगरराम बिश्नोई के साथ ऐसा नहीं हुआ इनके मेहनतकश पिता ने वक्त की नजाकत भांपते हुए इन्हें गाँव के ही सरकारी स्कूल भर्ती करवाया। विद्यालय घर से 5 किमी दूर और रास्ता भी जंगल से होकर जाया करता था यदि कोई और होता तो शायद इन परिस्थितियों में विद्यालय नहीं जा पाता पर डाँ. डुंगरराम बिश्नोई ने परिस्थितियों से परास्त हुए बिना प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करली।
जैसे-तैसे छठी कक्षा उत्तीर्ण की पर बुरा वक्त साथ ही रहा इन्हीं दिनों इनकी माताजी बिमार रहने लगी और इन्होंने ने निश्चय किया कि अब पढ़ाई साथ के साथ-साथ कोई छोटा-मोठा काम करूंगा जिससे पिता को सहारा मिल सके।सातवीं कक्षा का एक छोटा सा बच्चा अपने बचपन जिनमें पढ़ने की ललक तो थी ही साथ ही काम की जिम्मेदारी भी थी वो मात्र बारह वर्ष की उम्र में में घर छोड़कर सांचोर आ गये और एक चाय के ढ़ाबे पर काम करने लगें जिसके बदले में इन्हें दो वक्त की रोटी और सरकारी स्कूल की फीस भरने जितने रुपये मिल जाते। दो वर्ष यहाँ कार्य करने के बाद इन्होंने एक निजी विद्यालय में चपरासी का काम करना शुरू कर दिया यहाँ इन्हें स्कूल संचालक के घर पर काम भी करना पड़ता और मेहनताना वही खाना और स्कूल की फीस मिलती थी।
दो साल स्कूल में काम किया और फिर वापस गाँव आ गए और यहाँ की सरकारी विद्यालय में दसवीं कक्षा में प्रवेश ले लिया। गाँव में पढ़ाई के साथ-साथ दिहाड़ी की मजदूर कर परिवार के लालन-पोषण में पिता का सहयोग करने लगे। दसवीं में 44% ही बने पर निराश नहीं हुए और अपने अध्यापक के कहने पर ग्यारहवीं में विज्ञान वर्ग में प्रवेश ले लिया जिसे गाँवों में अमूमन कठिन और अमीर बच्चों का विषय माना जाता है। परिस्थितियों प्रतिकूल थी पर डाँ. डुंगरराम थके नहीं काम के साथ-साथ पढ़ाई जायी रखी पर ग्यारहवीं में सिर्फ 40% ही बने पर यह आंकड़ों में उलझे बिना आगे की पढ़ाई के बारे में योजना बनाने लगे।
वो कहते हैं ना कि वक्त के बदलते वक्त नहीं लगता। आखिर एक वो दिन भी आया जब डुंगरराम का वक्त भी बदल गया। इनके बड़े भाई जो नवोदय विद्यालय में पढ़ते थे का PMT में चयन हो गया और वो इन्हें अपने साथ जयपुर ले गए जहाँ से उन्होंने बारहवीं 70% अंकों के साथ उत्तीर्ण की और निरन्तर दो वर्ष बिना कोचिंग के कड़ी मेहनत के फलस्वरूप इनका भी दूसरे प्रयास में PMT में चयन हो गया। जयपुर में इनके लिए वित्तीय प्रबंध इनके मामा व बड़े भाई दुर्गाराम ने मजदूरी करके किया।
डाँ. डुंगरराम ने राजकीय मेडिकल काँलेज उदयपुर से MBBS करने के बाद सशस्त्र बल चिकित्सा सेवा परीक्षा उच्च वरियता के साथ उत्तीर्ण कर भारतीय वायुसेना में बतोर चिकित्सक चयनित हुए। डाँ. बिश्नोई वर्तमान में भारतीय वायुसेना के चिकित्सा विभाग में squadron leader के पद पर कार्यरत है।
बिश्नोई समाज के मेहनतकश बेटे की संघर्षों के बीच शानदार सफलता की यह कहानी ऐतिहासिक तो है ही साथ ही साथ अदभुत, अद्वितीय और अनुकरणीय भी है 

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