पर्यावरण संरक्षण अग्रदूत गुरु जम्भेश्वर

विश्व इतिहास की एक अनूठी घटना घटी थी यहा
राजस्थान के बड़े-बड़े टीलों के मध्य बीकानेर जिले
की नोरवा मंडी से 15 किलोमीटर, जयपुर हाईवे पर एक गांव
है ‘मुकाम’, जहां प्रतिवर्ष आसौज अमावस्या के अवसर पर देश-विदेश से लाखों पर्यावरण-
प्रेमी उस महान आत्मा को अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करने आते हैं जिन्होंने
आज से 529 वर्ष पूर्व सन् 1485 में लोगों को ‘हरे वृक्षों एवं वन्य जीव
प्राणियों की रक्षा करने का अनूठा पाठ पढ़ाया और पर्यावरण संरक्षण हेतु
अपना सर्वस्व बलिदान करने का दिव्य संदेश दिया।
प्रकृति का संतुलन बनाए रखने के लिए यह दिव्य संदेश देने वाले महान विभूति थे गुरु जम्भेश्वर महाराज (1451-1536) जिन्हें पर्यावरण संरक्षण
का अग्रदूत भी कहा जाता है। जब से सृष्टि बनी है, तब से ही जल, जंगल व जमीन
का आपसी सामंजस्य रहा है। सदियां गवाह हैं कि जब कभी भी इन तीनों के बीच
असंतुलन बढ़ा, तभी मानव तथा वन्य जीव प्राणियों के अस्तित्व को खतरा भी बढ़ा। आज सारा विश्व पर्यावरण-असंतुलन के
खतरों को लेकर चिंतित है, परंतु गुरु जम्भेश्वर महाराज ने तो आज से 530 वर्ष पूर्व पर्यावरण असंतुलन के प्रति लोगों को आगाह कर दिया था सन्
1485 में यह दिव्य संदेश देकर ‘जीव दया पालणी, रुंख लीलौ नहि घावै’ अर्थात पृथ्वी पर मानव
अस्तित्व को बचाए रखने के लिए जीवों पर दया करो और हरे वृक्षों को मत काटो।
कालांतर में सन् 1730 में उनके 363 बिश्रोई अनुयायियों ने हरे वृक्षों की रक्षा की खातिर अपने
प्राणों की जो आहुति दी, वह विश्व इतिहास की एक अनूठी घटना है। यह घटना राजस्थान
की जोधपुर रियासत में महाराजा अभय सिंह के शासनकाल में घटी। महाराज के नए महल के निर्माण के लिए चूना बनाने हेतु
लकड़ी की आवश्यकता हुई और राजा के भंडारी गिरधरदास ने जोधपुर शहर से 25 किलोमीटर दूर गांव
खेजड़ली में खेजड़ी के वृक्षों को काट कर लाने का आदेश अपने कारिंदों को दिया। शासन की कुल्हाडिय़ां जैसे
ही ‘खेजड़ली गांव’ के वृक्षों पर पडऩी शुरू हुईं, गांव की चौपाल में खेल
रही दो छोटी-छोटी बच्चियां भागते हुए अपने घर गईं और अपनी माता अमृता देवी बिश्रोई को सारे
हालात बताए। अमृता देवी ने तुरंत आसपास के घरों में इसकी सूचना अपनी दोनों बेटियों के माध्यम से पहुंचाई और
गांववासी विरोध प्रकट करने उस जगह पहुंचे जहां वृक्ष काटे जा रहे थे। उनके जोरदार विरोध के बावजूद वृक्षों की कटाई
जारी रही। उसी समय अमृता देवी ने वहां उपस्थित गांववासियों को अपने गुरु-गुरु जम्भेश्वर महाराज
का संदेश याद दिलाते हुए, गांववासियों का आह्वान किया है कि ‘सिर सांटे रुख रहे, तो भी सस्तो जाण’ अर्थात अपना बलिदान देने से
भी यदि हम वृक्षों की रक्षा कर सकें तो यह सौदा भी बहुत सस्ता है।
देखते ही देखते सैंकड़ों स्त्री, पुरुष और बच्चे उन वृक्षों की रक्षा करने हेतु वृक्षों से चिपक गए परंतु महाराज
के भंडारी गिरधर दास का आदेश नहीं रुका। शासन के जल्लादों की कुल्हाडिय़ां वृक्षों से चिपके हुए लोगों पर
चलती गईं और देखते ही देखते 363 स्त्री, पुरुष एवं बच्चों के खून से धरती माता लथपथ हो गई। इस
बलिदानी घटना की सूचना मिलने पर जोधपुर के महाराजा स्वयं घटनास्थल पर पहुंचे और उस जगह का हृदयविदारक दृश्य देख
कर आत्मग्लानि के मारे राजा ने तुरंत वृक्षों की कटाई बंद करवा दी। इस प्रकार उन 363 पर्यावरण प्रेमी बिश्रोइयों ने
वृक्षों की रक्षा हेतु अपने प्राणों की आहूति देकर विश्व के समक्ष एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। पर्यावरण संरक्षण
का ऐसा पाठ पढ़ाने वाले गुरु जम्भेश्वर महाराज के समाधि स्थल पर आज भी लाखों पर्यावरण संरक्षण के अग्रदूत-गुरु जम्भेश्वर महाराज
की समाधि के समक्ष बने बड़े-बड़े हवन कुंडों में हवन यज्ञ करके हरे वृक्षों एवं वन्य जीव
प्राणियों की रक्षा करने का अपना संकल्प दोहराते हैं।
इन पर्यावरण प्रेमियों द्वारा हरे वृक्षों एवं वन्य जीव प्राणियों की रक्षार्थ 529 वर्ष पूर्व सन् 1485 में लिए गए संकल्प
का सिलसिला, पीढ़ी-दर-पीढ़ी, आज भी जारी है। सन् 1536 में गुरु जम्भेश्वर
महाराज को गांव ‘मुकाम’ में जिस स्थान पर समाधि दी गई, वहां आज संगमरमर का एक भव्य विशाल मंदिर बना हुआ है, जो मुक्तिधाम
मुकाम के नाम से प्रसिद्ध है। मुक्तिधाम मुकाम प्रेरणा प्रदान करने वाली एक ऐसी जगह है जहां श्रद्धालुओं को मनोवांछित
फल प्राप्त होता है।

— अरुण जौहर

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